किसे दिखाते वो आंसू
तुम से बिछडके जो इन आंखों से फूटे होंगें
शब्दों में नहीं गहराई
तुम से मिलने की आस में
क्या क्या इस दिल ने सपने बुने होंगें
क्या गुजरी होगी हम पे, जब ये सपने टूटे होंगे
इतने पास आकर तेरे जब ये हाथ छूटे होंगें
पत्थर से इस दिल से क्या उम्मीद थी प्यार की
खेल भी ना बनाता क्या जरूरत थी इस झूठी आस की
कोई एहसास नहीं तुम्हें अकेली सर्द रातों में
याद कर कर के तुम्हें जब ये लम्हें बीते होंगें
रब की तरह पूजा जिसको उस पर से ही जब ये भरोसे टूटे होंगे
तुम्हे क्या पता कितनी मुसकिल होता होगा
बिन उम्मीदों की सुबहों का जगना
जब छुप छुप के रजाई में सोना ही सुकुन बन जाता हो
खयालों में भी ना सोचे जो दिन
क्या बताते जब ये अरमान हकीकत में टूटे होगें
जिन्दा तो नहीं रह गये अब शायद
बस ये सांस नहीं छूटे होंगें
मेरे तरफ़ से दो पंक्तिया ग़ुस्सा के ऊपर पेश हैं जनाब..
ग़ुस्सा उनसे क्या, जिनकी सोच में हम ना थे,
ग़ुस्सा तो मुझे खुद से हैं, क्यों चाहा तुम्हें दिल से,
क्या कोई ग़ुस्सा हो सकता हैं अपने ऊपर इतना,
क्या करूँ अब जो तुम मेरी हर सोच में बसी हो इतना,
madhukosh.com
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मैंने प्रेम सीखा
और तुम धोखेबाजी में उस्ताद,
अपना बनाया
और तुम मुझे मिटाने में बादशाह,
हम समझकर भी समझ नही पाए,
साथ चलते रहे
ये सोचकर
शायद तुम बदल जाओगे
मगर तुम खुद को आज भी बदल नही पाए।
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Nice blog
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Thank you
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🤔
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